Thursday 22 March 2012

Shiksha Ka Sach

जुलाई 2011 में kgbv में कुछ उन बालिकाओं के एडमिशन हुए जो अपने गावों में प्राथमिक विद्यालय में पढ़ी थीं वो अपनी घरेलू समस्याओं के कारण या पारवारिक स्थिति ठीक न होने के कारण शिक्षा लेना छोड़ चुकी थी। बालिका से पूछा गया कि गिनती आती हैं, नहीं। पहाड़े आते हैं, नहीं। हिंदी पढ़ना आती है, नहीं। नाम लिखवाया वह भी ठीक से नहीं लिख पाई। बालिका के अभिभावक ने कहा," साब वहां कुछ पढ़ाया ही नहीं जाता है।
इतने में बालिका ने कहा," गुरु जी तो कभी आते ही नहीं थे एक शिक्षा मित्र ही स्कूल देखते थे बच्चे भी स्कूल में खाना खाने और वज़ीफा लेने जाते थे। जब कभी रसोइया नहीं आती थी तो टीचर ही खाना बनाती थीं। पांच साल में अ, आ, न सीख पाए, गावों में तो आप जानते ही हो पढ़ाई तो होती नहीं है मास्टर तो बस बच्चों को घेरे घारे रहते हैं।
प्राथमिक विद्यालय, जूनियर हाई स्कूल तक कोई पढ़ाई नहीं होती बस दिखावा ही दिखावा अब सोचिये जहाँ बच्चों की कोई प्रोग्रेस नहीं, बच्चे जहाँ थे वहीँ के वहीँ सिर्फ उम्र उनकी 5 से 10  वर्ष हो गई और शिक्षक शिक्षिकाओं को अवश्य उनकी मौज का मेहनताना मिला। 
प्राथमिक विद्यालयों की ख़राब स्थिति के लिए जिम्मेदार है सेटिंग्स जो कि उच्चाधिकारियों से होनी आवश्यक होती है।
एक समय में बाल श्रम विद्यालय चले उनके बंद होने का मुख्य कारण रहा कि जितना धन उनके लिए आता था वह तो पूरा का पूरा अधिकारी डकार जाते थे निरिक्षण के दौरान स्कूलों में कोई नहीं 60 में से मात्र 5 या 8 बच्चे मिला करते थे।
असल में जितनी भी योजना परियोजना गरीबों के लिए प्रारंभ की जाती हैं उसमें अधिकारीयों की बल्ले बल्ले हो जाती है क्योंकि इस दुनिया में यदि सबसे गरीब कोई है तो वह है अधिकारी क्योंकि वह तो भिकारियों के कटोरे में से भी अठन्नी चवन्नी उठाने से बाज़ नहीं आता है। कितनी अलग बात है कि सरकार यदि अपने आंकड़े के अनुसार किसी विद्यालय पर 40  लाख रूपए खर्च करती है जो की जनता के और महंगाई के अनुसार 70  लाख होना चाहिए, उस 40  में से 20  हमारे गणमान्य लोग ही खा जाते, तब सोचिये 70  बाला कार्य मात्र 20  में कैसे हो जायेगा उसके बाद भी जबाब यह कि व्यवस्था ठीक कीजिये।